लोकतांत्रिक सुधारों की ‘सप्तपदी’

18 02 2010
भारतीय लोकतंत्र एक चैराहे पर खड़ा है। एक तरफ तो यह स्वतंत्र, निष्पक्ष, पारदर्शी चुनाव तथा विशाल लोकतांत्रिक प्रक्रिया को संपन्न कराने का दावा करता है, वहीं दूसरी तरफ इस लोकतंत्र में एक आम आदमी भी है जो सत्ता के केन्द्रों और रोजमर्रा की जिंदगी के बीच बढ़ती दूरी से कुंठित होता जा रहा है। आम आदमी लोकतंत्र द्वारा दिखाए सपनों और वास्तविक जिंदगी के बीच झूल रहा है। ऐसे में भारतीय लोकतंत्र को परिवर्तन की एक नई बयार की प्रतीक्षा है, जो निश्चय ही लोक-राजनीति और लोकतांत्रिक संस्थानों की मजबूती से जुड़ा मसला है। लेकिन इस दिशा में प्रयास करने की अपनी समस्याएँ हैं। मौजूदा राजनैतिक संस्थान और प्रक्रियाएँ नए विचारों, नई ऊर्जा और नए लोगों को जगह नहीं देना चाहती। ऐसे में लोकतांत्रिक सुधार अपरिहार्य हो गए हैं, अन्यथा खोखले वादों और दिखावटी घोषणाओं वाला लोकतंत्र ही हमारी नियति होगा।
साल दर साल यह समस्या और गहरी होती गई है। सत्ता के केन्द्रों और आम आदमी के बीच दूरी बढ़ी है, राजनीतिक प्रक्रियाएँ आश्चर्यजनक रूप से और अभूतपूर्व पैमाने पर खर्चीली हो गईं हैं, उनकी संसाधनों पर निर्भरता बढ़ी है और जनता व राजनीति के बीच का सीधा और सरल रिश्ता दुर्लभ होता जा रहा है। सुधार के नाम पर किये गए अदूरदर्शी प्रयासों ने समस्या को और जटिल बना दिया है। इसने नए लोगों और विचारों के लिए रास्ता अवरुद्ध कर दिया है, स्थानीय राजनीतिक गतिविधियों को हतोत्साहित किया है और मीडिया के माध्यम से गैर-जवाबदेही को बढ़ावा दिया है। राजनैतिक दलों के अंदर शक्ति के केन्द्रीकरण ने लोकतंत्र को कमजोर किया है। स्थानीय प्रयास महत्वहीन हो गए हैं और राजनीति में काॅरपोरेट घरानों का हस्तक्षेप बढ़ा है। इन सब से लोकतंत्र का अवमूल्यन हुआ है।
इस मुद्दे पर एक राजनैतिक घोषणा-पत्र की आवश्यकता बढ़ी है; ऐसा घोषणा-पत्र, जो राजनैतिक विषय-वस्तु और दृष्टि से संपन्न हो। यह एजेण्डा अगर व्यापक जन-ऊर्जा को बदलाव की राजनीति का रूप न दे पाया तो भी लोकतंत्र को तो मजबूत करेगा ही। अन्यथा जिस तरह का व्यापक असंतोष फैल रहा है, उसे कभी भी अराजनीतिक और अलोकतांत्रिक दिशा मिल सकती है।
वर्तमान परिदृश्य नए तरह के लोकतांत्रिक सुधारों की माँग करता है। जयप्रकाश नारायण ने भी पश्चिमी पद्धति पर आधारित लोकतंत्र की आलोचना की थी। 1970 और ‘80 के सुधारकों ने विधायिका और कार्यपालिका जैसे उच्च राष्ट्रीय संस्थानों पर ही ध्यान केन्द्रित किया। अभी तक सुधार के उद्देश्य साधारण और सामान्य थे- भ्रष्टाचार पर रोक और स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव। इसके लिए कानूनी और संवैधानिक तरीकों का इस्तेमाल किया गया। वास्तव में इस दौरान चुनाव सुधार ही लोकतांत्रिक सुधारों का केन्द्रीय मुद्दा बना रहा।
तब से आज तक राजनैतिक परिदृश्य में बड़ा बदलाव आया है। भारतीय राजनीति में एकदलीय राजनीति का प्रभुत्व समाप्त हुआ है। सीटों और वोटों के प्रतिशत में असमानता का मुद्दा उतना महत्वपूर्ण नहीं रहा, जितना पहले था। क्षेत्रीय पार्टियों के उदय ने राजनीति को अधिक समावेशी और संतुलित किया है। जमीनी स्तर पर एक नए तरह का लोकतांत्रिक उभार देखने में आया है, जो नई आशाओं और आकांक्षाओं से भरा है; इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। इन सबके अतिरिक्त कुछ नए कानूनों ने भी संस्थागत ढाँचे में बदलाव किया है। जैसे कि 73वां संशोधन और दलबदल विरोधी कानून । कुल मिलाकर हमें नई समस्याओं और नए विचारों के साथ ही राजनीतिक सुधारों की तरफ बढ़ना होगा।
शेषन के बाद के समय में राजनैतिक सुधारों से संबंधित एक खास तरह का रूढ़ विचार लोगों के दिलो-दिमाग पर छा गया है। इससे मुख्यधारा के चिंतन के भी रूढ़ हो जाने का खतरा पैदा हो गया है, जो राजनीति को एक छोटे से विशिष्ट वर्ग की तुष्टि का साधन बनाना चाहता है। यह विचार पिछले एक दशक में उभरे हुए लोकतांत्रिक आंदोलनों को दबाना चाहता है और लोकतंत्र को जनता से दूर एक विशिष्ट ‘सुरुचि सम्पन्न’ वर्ग की आवश्यकताओं के अनुसार परिवर्तित- परिवर्द्धित करना चाहता है। इस विचार में राजनैतिक सुधारों को उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के ‘आर्थिक पैकेज’ के रूप में देखा जाता है। जाहिर है कि इसमें राज्य की भूमिका सीमित है। राजनैतिक सुधारों पर हमारे दृष्टिकोण की शुरूआत एक अलग ही तरह से होती है जिसका जोर हमारी अपनी परिस्थिति और लोकतांत्रिक अवमूल्यन के वस्तुगत विश्लेषण पर है। राजनैतिक सुधारों का मुख्य कार्य लोकतांत्रिक अवमूल्यन और उसके मूल कारणों की खोज और समाधान से जुड़ा है।
भारतीय लोकतंत्र के वर्तमान परिदृश्य की असफलता इस बात में नहीं है कि वह स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव नहीं करा पा रहा है, या उसकी जनता अपने स्वतंत्र वोट के जरिये सरकार नहीं बदल पा रही है। बल्कि उसकी असफलता मतदाता और चुने हुए प्रतिनिधियों के बीच बढ़ती दूरी, राजनीतिक प्रतिनिधित्व में बढ़ते भ्रष्टाचार और राजनैतिक प्रतिस्पद्र्धा को प्रभावी नीति-निर्माण के विकल्प में न बदल पाने में निहित है। जाहिर है कि लोकतंत्र का संस्थागत ढाँचा जनता की भागीदारी और उत्साह को उसके वांछित परिणामों तक नहीं पहुँचा पाया है।
इसलिए हमें उन सभी तरीकों को सशक्त बनाना होगा जो राजनैतिक एजेंडे के निर्माण, सरकारी नीतियों के निर्धारण और प्रभावी क्रियान्वयन में जनता की भागीदारी सुनिश्चित कर सके। राज्य की बदली हुई भूमिका में यह जरूरी हो गया है कि सामाजिक परिवर्तन के साधन के रूप में राजनीति की प्राथमिकता सुनिश्चित की जाए। किसी भी रेडिकल राजनीतिक सुधार के लिए जरूरी है कि वह सदियों से उपेक्षित सामाजिक समूहों की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भागीदारी तय करे।

इसके लिए सार रूप में लोकतांत्रिक सुधारों की यह ‘सप्तपदी’ प्रस्तावित की जा रही है-
1. चुनाव प्रणाली के वर्तमान तंत्र को चुनाव सुधार के जरिए सुव्यवस्थित एवं सक्रिय बनाया जाए।
2. संवैधानिक परिवर्तन द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के रूप में समाज के विभिन्न हिस्सों की उचित हिस्सेदारी को संभव बनाया जाए।
3. सभी प्रत्याशियों के लिए संसाधनों की समान सुलभता सुनिश्चित की जाए।
4. जनमत बनाने वाले राजनीतिक सूचना तंत्र को लोकतांत्रिक बनाया जाए।
5. नागरिक तथा निर्वाचित और जवाबदेह लोकतांत्रिक संस्थानों की केन्द्रीयता निर्विवाद होनी चाहिए।
6. राजनैतिक व्यवस्था के विकेन्द्रीकरण पर बल देना होगा और चुनाव प्रणाली को अतिविस्तृत आकार की विवशता से मुक्त कराना होगा।
7. राजनीति में जनता की भागीदारी सुनिश्चित करने और लोकतांत्रिक चेतना के विस्तार के लिए अभियान चलाया जाए।

जैसा कि इस ‘सप्तपदी’ से स्पष्ट ही है कि ये सभी सुधार ‘चुनाव सुधार’ मात्र ही नहीं हैं, बल्कि चुनाव और राजनीतिक सुधारों के अंतःसंबंध को देखते हुए इसकी जरूरत बनी हुई है कि व्यापक लोकतांत्रिक सुधारों के संदर्भ में ही चुनाव सुधारों की बात की जाय। चुनाव कैसे लड़े जाए, सिर्फ इस पर केन्द्रित होने की बजाय हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि चुनावों का उद्देश्य क्या है और कौनसे नियम और परिस्थितियाँ चुनाव परिणामों को प्रभावित करते हैं। इस सूची के सभी विषय केवल लोकसभा द्वारा या केवल राज्य द्वारा लागू नहीं किये जा सकते; लोकतांत्रिक सुधारों के लिए नागरिक प्रयासों की भी उतनी ही जरूरत है, जितनी कि संस्थागत प्रयासों की।

1. चुनाव प्रणाली के वर्तमान तंत्र को चुनाव सुधार के जरिए सुव्यवस्थित एवं सक्रिय बनाया जाए-
यद्यपि चुनाव सुधार को लोकतांत्रिक सुधारों का समानार्थी नहीं समझा जा सकता फिर भी सत्ता के केन्द्रों और आम जनता के बीच की दूरी को कम करने के लिहाज से चुनाव सुधारों की भूमिका से इन्कार नहीं किया जा सकता।

  1. चुनाव आयोग की आचार संहिता को कानून में परिवर्तित किया जाए। इस आचार संहिता में प्रचार और योग्यता संबंधी जो प्रावधान हैं, उन्हें और स्पष्ट किया जाना चाहिए ताकि अनावश्यक पाबंदियाँ हटाई जा सकें।
  2. चुनाव के समय प्रत्याशियों द्वारा संपत्ति और आपराधिक मामलों से जुड़े जो हलफनामें दाखिल किये जाते हैं, उनकी फौजदारी जाँच की जाय; गलत पाये जाने पर उन्हें आगे के चुनावों के लिए अयोग्य घोषित किया जाय और अगर उनमें से कोई जीतता है तो उसका चुनाव रद्द कर दिया जाय।
  3. स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव के प्रावधानों को जम्मू-कश्मीर और उत्तर-पूर्व जैसे समस्याग्रस्त क्षेत्रों पर भी लागू किया जाय। ऐसे क्षेत्रों में चुनाव प्रक्रिया में सुरक्षा बलों की भूमिका को नगण्य बनाया जाए (जबर्दस्ती वोट डलवाने को भी); मूलभूत लोकतांत्रिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले ए.एफ.एस.पी.ए. जैसे कानूनों को हटाया जाए।
  4. मतदाताओं को ‘‘उपरोक्त में से कोई नहीं’’ (‘‘नोटा’’) का गुप्त विकल्प मुहैया कराया जाए। अगर ‘नोटा’ का मत प्रतिशत सर्वाधिक मत पाने वाले प्रत्याशी से ज्यादा है तो फिर से चुनाव कराया जाए।
  5. राजनीतिक दलों के आंतरिक क्रियाकलापों का नियमन करने के लिए कुछ न कुछ प्रावधान जरूर होने चाहिए। एक ऐसा कानून बनाया जाए जिसके तहत सभी राजनीतिक दल अपने-अपने संविधानों का पालन अवश्य करें। सदस्यता का रजिस्टर सार्वजनिक होना चाहिए और सर्वोच्च निर्णायक संस्था के लिए दलों के अंदर भी लोकतांत्रिक पद्धति से चुनाव होने चाहिए। दलों के संविधान के उल्लंघन या इस संबंधी किसी विवाद के निपटारे के लिए चुनाव आयोग द्वारा किसी बाह्य निर्णायक व्यवस्था का प्रावधान हो।
  6. चुनाव क्षेत्रों का परिसीमन 10 साल में एक बार अवश्य किया जाना चाहिए, जैसा कि संविधान में भी अपेक्षित है। देशभर में लोकसभा, विधानसभा या पंचायती राज- नगरपालिका चुनावों के लिए एक ही वोटर लिस्ट होनी चाहिए।
  7. मुख्य चुनाव आयुक्त एवं अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति एक संवैधानिक समिति द्वारा की जाए जिसमें प्रधानमंत्री, विपक्ष का नेता और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश शामिल हों।
  8. पंचायत और नगरपालिका स्तर पर स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चिित करने के लिए संविधान की धारा 352 के तहत सभी राज्यों के लिए एक सा कानून और आचार संहिता बननी चाहिए।
  9. चुनाव आयोग के सदस्यों के लिए रिटायरमेंट के बाद सरकारी नियुक्तियों (राज्यसभा में नामांकन सहित) पर प्रतिबंध लगना चाहिए और चुनाव आयोग के सदस्यों को सेवानिवृत्ति के 5 साल बाद तक चुनाव लड़ने से रोका जाना चाहिए।
2. संवैधानिक परिवर्तन द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के रूप में समाज के विभिन्न हिस्सों की उचित हिस्सेदारी को संभव बनाया जाए-
हमारी चुनाव प्रणाली में दो खास समस्याएँ हैं कि औरतों और मुसलमानों की भागीदारी समाज में उनकी उपस्थिति की अपेक्षा काफी कम है। दोनों ही परिस्थितियों में यह कमी व्यापक और संरचनागत है, इसलिए सबकुछ अपने आप ठीक हो जाएगा, इसकी अपेक्षा नहीं की जा सकती। दोनों ही मामले संस्थाओं के पुनर्गठन की आवश्यकता को दर्शाते हैं। पर ऐसा करते समय ध्यान रखा जाए कि परिवर्तन अपने उद्देश्यो को प्राप्त करें और उनके साइड इफैक्ट मिलने वाले लाभों पर भारी न पड़ें।
सरकार और विपक्ष को एक-तिहाई महिला आरक्षण के संवैधानिक सुधार के अपने वादे को बिना किसी देर के निभाना चाहिए। जनमत और विभिन्न राजनैतिक धाराओं के बीच बनने वाली व्यापक सहमति को ‘सर्वसम्मति’ के तर्क का मोहताज न बनाया जाए। ठीक इसी प्रकार महिला आरक्षण के वर्तमान ढाँचे को लागू कर दिया जाए और सर्वोत्तम उपाय की खोज जारी रखी जाए।
मुसलमानों की अपेक्षाकृत कम भागीदारी से जुड़े हुए मसले पर एक राष्ट्रीय बहस प्रारंभ करने की जरूरत है और इसके उपाय खोजें जाए।
इनके अतिरिक्त जनप्रतिनिधियों के बदलते वर्गीय चरित्र पर विचार करने की जरूरत है क्योंकि राजनीति में धनी-कुबेरों का प्रभुत्व बढ़ा है। कुछ समूह और हैं, जिनकी भागीदारी भी उनकी संख्या के मुकाबले कम है, जैसे- महादलित, उपेक्षित आदिवासी, पसमांदा मुस्लिम और अतिपिछड़े वर्ग। इन पर भी ध्यान देने की जरूरत है।

3. सभी प्रत्याशियों के लिए संसाधनों की समान सुलभता सुनिश्चित की जाए-
चुनाव सुधार संबंधी इस विमर्श में पहले खर्च किए जाने वाले धन की अधिकतम सीमा पर बात होती थी, जबकि अब सभी प्रत्याशियों को एक समान आधार मुहैया कराने की बात की जा रही है। जहाँ एक तरफ कुछ प्रत्याशियों के पास अथाह संपत्ति है, वहीं दूसरी तरफ इसका गंभीर अभाव देखा जा सकता है। इसलिए सभी प्रत्याशियों को उचित और समान रूप से संसाधन उपलब्ध कराये जाना जरूरी है। ऐसा नहीं है कि जो ज्यादा पैसा खर्च करेगा, वही चुनाव जीतेगा, लेकिन ऐसा जरूर है कि चुनाव में गंभीर रूप से भाग लेने के लिए एक न्यूनतम धन की आवश्यकता पड़ती है। अभी तक उपेक्षित जनता के उभार ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया में इस बिंदु को और भी महत्त्वपूर्ण बना दिया है। इसके लिए कुछ सुझाव निम्न हैं-
1. चुनावी खर्च की अधिकतम सीमा निर्धारित करने के लिए जन प्रतिनिधि अधिनियम में परिवर्तन किये जाए ताकि पार्टी और मित्रों द्वारा किये जाने वाले खर्च को भी प्रत्याशी के खर्च में जोड़ा जा सके ; अनुच्छेद 77 में 1974 में किया गया संशोधन रद्द किया जाए। चुनावी खर्च की अधिकतम सीमा को वास्तविक बनाया जाए और हर आमचुनाव के साथ इसका पुनरीक्षण किया जाए।
2. चुनावी खर्च पर सब्सिडी देने के लिए और वैध राजनैतिक गतिविधियों को समर्थन देने के लिए भारत के संचित कोष में से एक राष्ट्रीय निर्वाचन कोष का निर्माण किया जाना चाहिए। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में जो पार्टी एक प्रतिशत से अधिक वोट पाये, या जो प्रत्याशी दो प्रतिशत से अधिक वोट पाये, उसे प्रति वोट 10 रुपये के हिसाब से खर्च उपलब्ध कराया जाए। ऐसी राजनीतिक पार्टियाँ, जो अपने हाइकमान या पार्टी पदाधिकारियों के चुनाव के लिए लोकतांत्रिक पद्धति का सहारा न लें, उन्हें इस तरह की सहायता न दी जाए।
3. राजनीतिक दलों को सहायता देने वाले व्यक्तियों अथवा कंपनियों को आयकर में छूट की अधिकतम सीमा निर्धारित की जाए। नागरिक समाज द्वारा राजनीतिक कार्यकत्ताओं के लिए सामाजिक फंड उपलब्ध कराने के कार्य को प्रोत्साहित किया जाए।

4. जनमत बनाने वाले राजनीतिक सूचना तंत्र को लोकतांत्रिक बनाया जाए-
आने वाले वर्षों में सूचना का लोकतांत्रीकरण एक गंभीर मुद्दा बनने जा रहा है। और इस क्षेत्र में राज्य के पारंपरिक कानून सुधार का बेहतर विकल्प प्रस्तुत नहीं कर सकते।
पण् सूचना के अधिकार को कमजोर करने वाले किसी भी प्रावधान का विरोध किया जाए। इस अधिकार को और भी मजबूत करने की जरूरत है।

  1. टेलीविजन पर आने वाले ऐसे राजनैतिक और चुनावी विज्ञापनों पर पूर्ण रोक लगाई जाए जिनका भुगतान किया गया हो क्योंकि दुनियाभर के उदाहरणों ने हमें यह सीख दी है कि सभी प्रत्याशियों को समान अवसर उपलब्ध कराने की दृष्टि से यह घातक हो सकता है। सभी चैनलों के लिए यह अनिवार्य किया जाए कि वे सभी राजनैतिक दलों को प्रचार के लिए कुछ समय निशुल्क उपलब्ध कराये, जैसा कि दूरदर्शन के साथ है।
  2. हाल-फिलहाल मीडिया में यह प्रवृत्ति देखी गई है कि वह राजनैतिक दलों और प्रत्याशियों को न्यूज स्पेस बेचने का प्रयास करते हैं। अगर मीडिया स्वयं इस प्रवृत्ति पर रोक नहीं लगाता तो इसे चुनाव आचार संहिता के अंतर्गत चुनाव आयोग के प्रभाव क्षेत्र में ले आना चाहिए। इससे समाचारों और विज्ञापनों में स्पष्ट विभेद किया जा सकेगा और राजनैतिक विज्ञापन के लिए आने वाले धन का पूरा ब्यौरा भी मिल सकेगा
  3. जनसंचार के स्वतंत्र माध्यमों को प्रसार भारती के माध्यम से नियंत्रित किया जाए।
  4. प्राइवेट मीडिया के स्वामित्व को और अधिक लोकतांत्रिक बनाया जाए तथा एकाधिकार जैसे अलोकतांत्रिक रवैये को रोकने के लिए ‘क्राॅस मीडिया आॅनरशिप’ आदि पर रोक लगाई जाए। छोटे समूहों और आंदोलनों को मीडिया आसान और सस्ते रूप में सुलभ हो।
  5. इस क्षेत्र में काम करने वाले लोगों में अभी तक उपेक्षित रहे समुदाय शामिल हो सकें। इसके लिए उच्च शिक्षा के स्तर पर सुधार किये जाए।
5. नागरिक तथा निर्वाचित और जवाबदेह लोकतांत्रिक संस्थानों की केन्द्रीयता निर्विवाद होनी चाहिए-
पिछले दो दशकों में लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित संस्थाओं का क्षरण हुआ है। खासतौर पर अफसरशाही और अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्थाओं के दबाव से। यह क्षरण लोकतांत्रिक उभार और राजनीतिक सक्रियता, दोनों के ही लाभों को कम कर रहा है। इसके लिए कुछ तात्कालिक सुझाव हैं-
  1. क्षेत्रीय विकास के लिए चुने गए प्रतिनिधियों को दिए जाने वाले धन और ऐसी अन्य योजनाओं को तत्काल प्रभाव से बंद किया जाए।
  2. सरकार के लिए यह अनिवार्य होना चाहिए कि वह किसी भी तरह की अन्तर्राष्ट्रीय संधि को पहले संसद में पारित कराये। इससे दो सरकारों के बीच हुए समझौतों के साथ-साथ (जैसे भारत-अमेरिका परमाणु समझौता) विश्व व्यापार संगठन और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी संस्थाओं से होने वाले समझौते भी व्यापक स्वीकृति के बाद ही संभव हो। इसी तरह ऐसे समझौते जो राज्य सूची के विषयों से संबंधित हों, उनके लिए राज्य विधानसभाओं का बहुमत द्वारा समर्थन आवश्यक होना चाहिए।
  3. कोई भी निर्णय, जो किसी स्थान विशेष के लोगों की जिंदगी और जीविका को प्रभावित करता हो, उसकी स्वीकृति सबसे पहले वहीं से लेनी चाहिए। अधिग्रहण के लिए पंचायत की स्वीकृति के नियम को मजबूत करना होगा और उसे संवैधानिक सुरक्षा प्रदान करनी होगी।
6. राजनैतिक व्यवस्था के विकेन्द्रीकरण पर बल देना होगा और चुनाव प्रणाली को अतिविस्तृत आकार की विवशता से मुक्त कराना होगा-
73वें और 74वें संशोधन के द्वारा हम इस दिशा में आगे बढ़ चुके हैं। इनसे मिलने वालें लाभों को सुदृढ़ करने की जरूरत है, ताकि उन्हें राजनीतिक सुधार के इस कार्यक्रम से जोड़ा जा सके-
  1. पंचायती राज प्रणाली को सुदृढ किया जाए। इसके लिए पंचायतों, ग्राम सभाओं और नगरपालिकाओं को अधिक शक्तियाँ, वित्तीय संसाधन और कर्मचारी अनिवार्य रूप से उपलब्ध करावायें जाए। आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय संबंधी योजनाओं के निर्माण में ग्राम सभाओं और स्थानीय प्रशासन की संविधान सम्मत भूमिका को सुदृढ किया जाए।
  2. छोटे राजनीतिक दलों को भी सुरक्षित एवं सक्रिय रखने की जरूरत है। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर की बड़ी पार्टियों को अपेक्षाकृत अधिक लाभ पहुँचाने वाले जो सुधार चुनाव प्रणाली में किये गए हैं, उन्हें समाप्त किया जाना चाहिए। चुनाव प्रचार की अवधि पूरे 3 सप्ताह ही रखनी चाहिए ताकि सीमित संसाधन वाली पार्टियों और प्रत्याशियों को भी पर्याप्त अवसर मिले।
  3. जिला स्तर पर चुनी हुई सरकारें हों। उनके प्रभाव क्षेत्रों में आने वाले विषयों की अलग से सूची बनाकर उन्हें संवैधानिक मान्यता प्रदान की जाए।
  4. राज्यों को अधिक वित्तीय शक्तियाँ प्रदान की जाय, जैसा कि सरकारिया आयोग का सुझाव भी था।
  5. छोटे राज्यों की माँग को ध्यान में रखते हुए एक नए ‘राज्य पुनर्निर्माण आयोग’ का गठन किया जाए जिससे आर्थिक, सांस्कृतिक, पर्यावरणिक, प्रशासनिक और राजनैतिक सीमाओं का एक-दूसरे से साम्य रहे।
  6. इस आयोग के अधिकार में इसे भी सम्मिलित किया जाए कि वह बड़े राज्यों के पिछड़े क्षेत्रों के स्वायत्त शासन की माँग पर विचार कर सके। इसके लिए स्वायत्त परिषद के प्रावधान को आदिवासी क्षेत्रों के बाहर भी लागू किया जाए।
7. राजनीति में जनता की भागीदारी सुनिश्चित करने और लोकतांत्रिक चेतना के विस्तार के लिए अभियान चलाया जाए- लोकतांत्रिक सुधार सिर्फ राज्य या राजनैतिक दलों की जिम्मेदारी नहीं है। अंतिम रूप में लोकतांत्रिक सुधारों की सफलता या असफलता (राज्य और राजनैतिक दलों पर दबाव डालने की प्रक्रिया इसमें शामिल है) आम आदमी की भागीदारी और सक्रियता पर ही निर्भर करती है। इसके अंतर्गत गैर-राजनीतिक और किसी भी दल से संबंध न रखने वाले संगठन और आंदोलन भी अपनी भूमिका निभायेंगे ताकि जनमत का निर्माण किया जा सके और राजनैतिक प्रक्रिया पर लगातार दबाव बनाये रखा जा सके। इसके लिए-
  1. चुनावी वादों का निरीक्षण-परीक्षण किया जाए और उन्हें याद रखा जाए ताकि दो चुनावों के बीच में प्रतिनिधियों की जवाबदेही तय की जा सके।
  2. गणमान्य नागरिकों के संगठनों का निर्माण किया जाए जो प्रत्याशियों की पृष्ठभूमि और चुनावी असंगतियों पर ध्यान दे सकें, खासतौर से समस्याग्रस्त क्षेत्रों में।
  3. नागरिक समाज के प्रयासों द्वारा सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए धन की उपलब्धता सुनिश्चित की जाए।
  4. पूरे देश में एक प्रचार अभियान चलाया जाए- खासतौर पर युवा वर्ग के बीच में। इससे मतदाता, सचेत नागरिक, राजनैतिक कार्यकर्ता और प्रतिनिधियों के रूप में आम आदमी की भागीदारी बढ़ सकेगी।
राजनैतिक दलों के अंदर सुधार की प्रक्रिया स्वयं उनके अंदर के लोकतांत्रिक दबावों से संपन्न होनी चाहिए। इसमें-
  1. स्थानीय इकाइयों की प्रत्याशियों के चयन में निर्णायक भूमिका हो।
  2. एक न्यूनतम अवधि की पार्टी सदस्यता या राजनीतिक अनुभव के बिना किसी भी व्यक्ति को टिकिट देने पर रोक लगे।
  3. पार्टी के कार्यकत्ताओं के क्रियाकलाप संबंधी व्यवस्थित नियम बनाये जाए और उनकी सेवानिवृत्ति की आयु भी निश्चित की जाए।
  4. पार्टी के कामकाज में वैध धन को संस्थागत तरीके से उपलब्ध कराया जाए।
  5. सदस्यों के भ्रष्टाचार संबंधी और आपराधिक व्यवहार की जाँच के लिए पार्टी के अंदर ही किसी गैर-न्यायिक प्रणाली का विकास किया जाए।

(यह परिपत्र 18-19 जुलाई, 2009 को जेएनयू, नई दिल्ली में आयोजित ‘लोक राजनीति मंच’ की दो दिवसीय कार्यशाला में प्रस्तावित ‘चुनाव सुधारों का राजनीतिक घोषणा-पत्र’, उस पर हुई बहस और लोक राजनीति मंच की उपसमिति की 15 अगस्त, 09 को नई दिल्ली में हुई चर्चा के आधार पर तैयार किया गया है।)
संपर्क-श्री कुलदीप नैयर (जी.7/2, बसंत विहार, नई दिल्ली), प्रो. आनंद कुमार (1310, पूर्वांचल, जेएनयू, नई दिल्ली),
डा. अजित झा (98689-20697), ई-मेल- lokrajnitimanch08@gmail.com
lokrajniti.blogspot.com


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